ग़ुलाम वंश


ग़ुलाम वंश
गुलाम वंश मध्यकालीन भारत का एक राजवंश था इस वंश का पहला शासक कुतुबुद्दीन ऐबक था जिसे मोहम्मद ग़ौरी ने पृथ्वीराज चौहान को हराने के बाद नियुक्त किया था इस वंश ने दिल्ली की सत्ता पर १२०६ ~ १२९० ईस्वी तक राज किया
इस वंश के शासक या संस्थापक ग़ुलाम (दास) थे कि राजा इस लिए इसे राजवंश की बजाय सिर्फ़ वंश कहा जाता है

शासक:

  1. कुतुबुद्दीन ऐबक
  2. आरामशाह
  3. इल्तुतमिश
  4. रूकुनुद्दीन फ़ीरोज़शाह
  5. रजिया सुल्तान
  6. मुईज़ुद्दीन बहरामशाह
  7. अलाऊद्दीन मसूदशाह
  8. नासिरूद्दीन महमूद
  9. गयासुद्दीन बलबन  

कुतुब-उद-दीन ऐबक

कुतुबुद्दीन ऐबक (फारसी: قطب الدین ایبک) मध्य कालीन भारत में एक शासक, दिल्ली का पहला सुल्तान एवं गुलाम वंश का स्थापक था। उसने केवल चार वर्ष (१२०६१२१०) ही शासन किया। वह एक बहुत ही प्रतिभाशाली सैनिक था जो दास बनकर पहले राजा के सैन्य अभियानों का सहायक बना और फिर दिल्ली का सुल्तान।

प्रारंभिक वर्ष

क़ुतुब अल दीन (या कुतुबुद्दीन) तुर्किस्तान का निवासी था और उसके माता पिता तुर्क थे। इस क्षेत्र में उस समय दास व्यापार का प्रचलन था और इसे लाभप्रद माना जाता था। दासों को उचित शिक्षा और प्रशिक्षण देकर उन्हें राजा के हाथ फ़रोख़्त (बेचना) करना एक लाभदायी धन्धा था। बालक कुतुबुद्दीन इसी व्यवस्था  फ़ख़रूद्दीन अब्दुल अज़ीज़ कूफी को बेच दिया। अब्दुल अजीज़ ने बालक क़ुतुब को अपने पुत्र के साथ सैन्य और धार्मिक प्रशिक्षण दिया। पर अब्दुल अज़ीज़ की मृत्यु के बाद उसके पुत्रों ने उसे फ़िर से बेच दिया और अंततः उसे मुहम्मद ग़ोरी ने ख़रीद लिया।
गोर के महमूद ने ऐबक के साहस, कर्तव्यनिष्ठा तथा स्वामिभक्ति से प्रभावित होकर उसे शाही अस्तबल (घुड़साल) का अध्यक्ष (अमीर--अखूर) नियुक्त कर दिया। यह एक सम्मानित पद था और उसे सैन्य अभियानों में भाग लेने का अवसर मिला। तराईन के द्वितीय युद्ध में पृथ्वीराज चौहान को पराजित कर, मारने के बाद ऐबक को भारतीय प्रदेशों का सूबेदार नियुक्त किया गया। वह दिल्ली, लाहौर तथा कुछ अन्य क्षेत्रों का उत्तरदायी बना।

ऐबक के सैन्य अभियान

उसने गोरी के सहायक के रूप में कई क्षेत्रों पर सैन्य अभियान में हिस्सा लिया था तथा इन अभियानों में उसकी मुख्य भूमिका रही थी। इसीसे खुश होकर गोरी उसे इन क्षेत्रों का सूबेदार नियुक्त कर गया था। महमूद गोरी विजय के बाद राजपूताना में राजपूत राजकुमारों के हाथ सत्ता सौंप गया था पर राजपूत तुर्कों के प्रभाव को नष्ट करना चाहते थे। सर्वप्रथम, ११९२ में उसने अजमेर तथा मेरठ में विद्रोहों का दमन किया तथा दिल्ली की सत्ता पर आरूढ़ हुआ। दिल्ली के पास इन्द्रप्रस्थ को अपना केन्द्र बनाकर उसने भारत के विजय की नीति अपनायी। भारत पर इससे पहले किसी भी मुस्लिम शासक का प्रभुत्व तथा शासन इतने समय तक नहीं टिका था।
जाट सरदारों ने हाँसी के किले को घेर कर तुर्क किलेदार मलिक नसीरुद्दीन के लिए संकट उत्पन्न कर दिया था पर ऐबक ने जाटों को पराजित कर हाँसी के दुर्ग पर पुनः अधिकार कर लिया। सन् ११९४ में अजमेर के उसने दूसरे विद्रोह को दबाया और कन्नौज के शासक जयचन्द के सातथचन्दवार के युद्ध में अपने स्वामी का साथ दिया। ११९५ इस्वी में उसने कोइल (अलीगढ़) को जीत लिया। सन् ११९६ में अजमेर के मेदों ने तृतीय विद्रोह का आयोजन किया जिसमें गुजरात के शासक भीमदेव का हाथ था। मेदों ने कुतुबुद्दीन के प्राण संकट में डाल दिये पर उसी समय महमूद गौरी के आगमन की सूचना आने से मेदों ने घेरा उठा लिया और ऐबक बच गया। इसके बाद ११९७ में उसने भीमदेव की राजधानी अन्हिलवाड़ा को लूटा और अकूत धन लेकर वापस लौटा। ११९७-९८ के बीच उसने कन्नौज, चन्दवार तथा बदायूँ पर अपना कब्जा कर लिया। इसके बाद उसने सिरोही तथा मालवा के कुछ भागों पर अधिकार कर लिया। पर ये विजय चिरस्थायी नहीं रह सकी। इसी साल उसने बनारस पर आक्रमण कर दिया। १२०२-०३ में उसने चन्देल राजा परमर्दी देव को पराजित कर कालिंजर, महोबा और खजुराहो पर अधिकार कर अपनी स्थिति मज़बूत कर ली। इसी समय गोरी के सहायक सेनापति बख्यियार खिलजी ने बंगाल और बिहार पर अधिकार कर लिया।

शासक

अपनी मृत्यु के पूर्व महमूद गोरी ने अपने वारिश के बारे में कुछ ऐलान नहीं किया था। उसे शाही ख़ानदान की बजाय तुर्क दासों पर अधिक विश्वास था। गोरी के दासों में ऐबक के अतिरिक्त गयासुद्दीन महमूद, यल्दौज, कुबाचा और अलीमर्दान प्रमुख थे। ये सभी अनुभवी और योग्य थे और अपने आप को उत्तराधिकारी बनाने की योजना बना रहे थे। गोरी ने ऐबक को मलिक की उपाधि दी थी पर उसे सभी सरदारों का प्रमुख बनाने का निर्णय नहीं लिया था। ऐबक का गद्दी पर दावा कमजोर था पर उसने विषम परिस्थितियों में कुशलता पूर्वक काम किया और अंततः दिल्ली की सत्ता का स्वामी बना। गोरी की मृत्यु के बाद २४ जून १२०६ को कुतुबुद्दीन का राज्यारोहन हुआ पर उसने सुल्तान की उपाधि धारण नहीं की। इसका कारण था कि अन्य गुलाम सरदार यल्दौज और कुबाचा उससे ईर्ष्या रखते थे। उन्होंने मसूद को अपने पक्ष में कर ऐबक के लिए विषम परिस्थिति पैदा कर दी थी। हँलांकि तुर्कों ने बंगाल तक के क्षेत्र को रौंद डाला था फिर भी उनकी सर्वोच्चता संदिग्ध थी। राजपूत भी विद्रोह करते रहते थे पर इसके बावजूद ऐबक ने इन सबका डटकर सामना किया। बख्तियार खिलजी की मृत्यु के बाद अलीमर्दान ने स्वतंत्रता की घोषणा कर दी थी तथा ऐबक के स्वामित्व को मानने से इंकार कर दिया था। इन कारणों से कुतुबुद्दीन का शासनकाल केवल युद्धों में ही बीता। उसकी मृत्यु १२१० में घोड़े से पोलो खेलते समय गिर कर एक दुर्घटना में हुई थी।
उसकी मृत्यु के बाद आरामशाह गद्दी पर बैठा पर ज्यादे दिन टिक नहीं पाया। तब इल्तुतमिश ने सत्ता सम्पाली।

आरामशाह

आरामशाह दिल्ली सल्तनत में गुलाम वंश का शासक था और वो कुतुबुद्दीन ऐबक के बाद सत्तासीन हुआ था कुतुबुद्दीन की मृत्यु के बाद लाहौर के अमीरों ने जल्दबाजी में उसे दिल्ली का शासक बना दिया पर वो अयोग्य निकला इसके बाद इल्तुतमिश शासक बना

इल्तुतमिश

इल्तुतमिश दिल्ली सल्तनत में ग़ुलाम वं का एक प्रमुख शासक था वंश के संस्थापक ऐबक के बाद वो उन शासकों में से था जिससे दिल्ली सल्तनत की नींव मजबूत हुई वह ऐबक का दामाद भी था उसने 1211 इस्वी से 1236 इस्वी तक शासन किया राज्याभिषेक समय से ही अनेक तुर्क अमीर उसका विरोध कर रहे थे

प्रतिद्वंदी

इल्तुतमिश के दो प्रमुख प्रतिद्वंदी थे - ताजु्ददीन यल्दौज तथा नासिरुद्दीन कुबाचा ये दोनों गौरी के दास थे यल्दौज दिल्ली के राज्य को ग़ज़नी का अंग भर मानता था और उसे गज़नी में मिलाने की भरपूर कोशिश करता रहता था जबकि ऐबक तथा उसके बाद इल्तुतमिश अपने आपको स्वतंत्र मानते थे। यल्दौज के साथ तराइन के मैदान में युद्ध किया जिसमें यल्दौज पराजित हुआ उसकी हार के बाद गजनी के किसा शासक ने दिल्ली की सत्ता पर आपना दावा पेश नहीं किया
कुबाचा ने पंजाब तथा उसके आसपास के क्षेत्रों पर अपनी स्थिति मजबूत कर ली थी सन् 1217 में उसने कुबाचा के विरूद्ध कूच किया कुबाचा बिना युद्ध किये भाग गया इल्तुतमिश उसका पीछा करते हुए मंसूरा नामक जगह पर पहुँचा जहाँ पर उसने कुबाचा को पराजित किया और लाहौर पर उसका कब्जा हो गया पर सिंध, मुल्तान, उच्छ तथा सिन्ध सागर दोआब पर कुबाचा का नियंत्रण बना रहा
इसी समय मंगोलों के आक्रमण के कारण इल्तुतमिश का ध्यान कुबाचा पर से तत्काल हट गया पर बाद में कुबाचा को एक युद्ध में उसने परास्त किया जिसके फलस्वरूप कुबाचा सिंधु नदी में डूब कर मर गया चंगेज खाँ के आक्रमण के बाद उसने पूर्व की ओर ध्यान दिया और बिहार तथा बंगाल को अपने अधीन एक बार फिर से कर लिया
वह एक कुशल शासक होने के अलावा कला तथा विद्या का प्रेमी भी था

गयासुद्दीन बलबन

गयासुद्दीन बलबन (1200 – 1286) दिल्ली सल्तनत में ग़ुलाम वंश का एक शासक था उसने सन् 1266 से 1286 तक राज्य किया।
गयासुद्दीन बलबन, जाति से इलबारी तुर्क था। उसकी जन्मतिथि का पता नहीं। उसका पिता उच्च श्रेणी का सरदार था। बाल्यकाल में ही मंगोलों ने उसे पकड़कर बगदाद के बाजार में दास के रूप में बेच दिया। भाग्यचक्र उसको भारतवर्ष लाया। सुलतान इलतुत्मिश ने उस पर दया करके उसे मोल ले लिया। स्वामिभक्ति और सेवाभाव के फलस्वरूप वह निरंतर उन्नति करता गया, यहाँ तक कि सुलतान ने उसे चेहलगन के दल में सम्मिलित कर लिया। रज़िया के राज्यकाल में उसकी नियुक्ति अमीरे शिकार के पद पर हुई। बहराम ने उसको रेवाड़ी तथा हांसी के क्षेत्र प्रदान किए। सं. 1245 . में मंगोलों से लोहा लेकर अपने सामरिक गुण का प्रमाण दिया। आगामी वर्ष जब नासिरुद्दीन महमूद सिंहासनारूढ़ हुआ तो उसने बलबन को मुख्य मंत्री के पद पर आसीन किया। 20 वर्ष तक उसने इस उत्तरदायित्व को निबाहा। इस अवधि में उसके समक्ष जटिल समस्याएँ प्रस्तुत हुईं तथा एक अवसर पर उसे अपमानित भी होना पड़ा, परंतु उसने तो साहस ही छोड़ा और दृढ़ संकल्प। वह निरंतर उन्नति की दिशा में ही अग्रसर रहा। उसने आंतरिक विद्रोहों का दमन किया और बाह्य आक्रमणों को असफल। सं. 1246 में दुआबे के हिंदू जमींदारों की उद्दंडता का दमन किया। तत्पश्चात् कालिंजर कड़ा के प्रदेशों पर अधिकार जमाया। प्रसन्न होकर सं. 1249 . में सुल्तान ने अपनी पुत्री का विवाह उसके साथ किया और उसको नायब सुल्तान की उपाधि प्रदान की। सं. 1252 . में उसने ग्वालियर, चंदेरी और मालवा पर अभियान किए। प्रतिद्वंद्वियों की ईर्ष्या और द्वेष के कारण एक वर्ष तक वह पदच्युत रहा परंतु शासन व्यवस्था को बिगड़ती देखकर सुल्तान ने विवश होकर उसे बहाल कर दिया। दुबारा कार्यभार सँभालने के पश्चात् उसने उद्दंड अमीरों को नियंत्रित करने का प्रयास किया। सं. 1255 . में सुल्तान के सौतेले पिता कत्लुग खाँ के विद्रोह को दबाया। सं. 1257 . में मंगोलों के आक्रमण को रोका। सं. 1259 . में क्षेत्र के बागियों का नाश किया। 1260 . से लेकर 1266 . तक की उसकी कृतियों का इतिहास प्राप्त नहीं।ज्म्
नासिरुद्दीन महमूद की मृत्यु के पश्चात् बिना किसी विरोध के ने मुकुट धारण कर लिया। उसने 20 वर्ष तक राज्य किया। सुल्तान के रूप में उसने जिस बुद्धिमत्ता, कार्यकुशलता तथा नैतिकता का परिचय दिया, इतिहासकारों ने उसकी भूरि भूरि प्रशंसा की है। शासनपद्धति को उसने नवीन साँचे में ढाला और उसको मूलत: लौकिक बनाने का प्रयास किया। वह मुसलमान विद्वानों का आदर तो करता था लेकिन राजकीय कार्यों में उनको हस्तक्षेप नहीं करने देता था। उसका न्याय पक्षपात रहित और उसका दंड अत्यंत कठोर था, इसी कारण उसकी शासन व्यवस्था को लोह रक्त की व्यवस्था कहकर संबोधित किया जाता है। वास्तव में इस समय ऐसी ही व्यवस्था की आवश्यकता थी।
बलबन ने मंगोलों के आक्रमणों की रोकथाम करने के उद्देश्य से सीमांत क्षेत्र में सुदृढ़ दुर्गों का निर्माण किया और इन दुर्गों में साहसी योद्धाओं को नियुक्त किया। उसने मेवात, दोआब और कटेहर के विद्रोहियों को आतंकित किया। जब तुगरिल ने बंगाल में स्वतंत्रता की घोषणा कर दी तब सुल्तान ने स्वय वहाँ पहुँचकर निर्दयता से इस विद्रोह का दमन किया। साम्राज्य विस्तार करने की उसकी नीति थी, इसके विपरीत उसका अडिग विश्वास साम्राज्य के संगठन में था। इस उद्देश्य की पूर्ति के हेतु के उसने उमराव वर्ग को अपने नियंत्रण में रखा एवं सुलतान के पद और प्रतिष्ठा को गौरवमय बनाया। उसका कहना था कि "सुल्तान का हृदय दैवी अनुकंपा की एक विशेष निधि है, इस कारण उसका अस्तित्व अद्वितीय है।" उसने सिजदा एवं पायबोस की पद्धति को चलाया। उसका व्यक्तित्व इतना प्रभावशाली था कि उसको देखते ही लाग संज्ञाहीन हो जाते थे। उसका भय व्यापक था। उसने सेना का भी सुधार किया, दुर्बल और वृद्ध सेनानायकों को हटाकर उनकी जगह वीर एवं साहसी जवानों को नियुक्त किया। वह तुर्क जाति के एकाधिकार का प्रतिपालक था, अत: उच्च पदों से अतुर्क लोगों को उसने हटा दिया। कीर्ति और यश प्राप्त कर वह सं. 1287 . के मध्य परलोक सिधारा।

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